15 नवंबर 2000 — यह तारीख झारखंड के इतिहास में मील का पत्थर है। लंबे संघर्ष, आंदोलन और बलिदानों के बाद जब बिहार से अलग होकर राज्य के रूप में यह क्षेत्र अस्तित्व में आया, तो आदिवासी और अन्य समाजों ने अपनी पहचान, स्वाभिमान और सांस्कृतिक विरासत के पुनरुद्धार की उम्मीद की। परंतु आज, दशकों बाद, यह प्रश्न स्वाभाविक है: झारखंड
ने आखिर क्या प्राप्त किया और क्या खो दिया?
क्या पाया — पहचान, संसाधन, विकास
राज्य गठन ने इस क्षेत्र को अपनी अलग राजनीतिक-सांस्कृतिक पहचान दी। खनिज, वन और ऊर्जा संसाधन की दृष्टि से यह राज्य विशेष रूप से समृद्ध है। शिक्षा, स्वास्थ्य व आधारभूत संरचना में कुछ सुधार हुए। शहरों में उद्योग, उच्च-शिक्षा संस्थान स्थापित हुए, और युवा वर्ग को अवसर मिले।
क्या खोया — असमान विकास, प्रशासनिक चुनौतियाँ
फिर भी, विकास संतुलित नहीं रहा। ग्रामीण-आदिवासी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं-सड़कों, पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा की कमी बनी हुई है। राजनीति में अस्थिरता, संसाधन वितरण में असमानता और भूमि-संपदा के मामलों में विवाद ने विकास को बाधित किया।
विस्थापन — विकास की कीमत
विकास-परियोजनाओं के चलते राज्य में कई आदिवासी व ग्रामीण परिवार विस्थापित हुए हैं — उद्योग-खनन-बाँध आदि के कारण उनकी जमीन-भूमि छिन गई, सांस्कृतिक व सामाजिक संरचना प्रभावित हुई।
उदाहरण के लिए: “बड़े-बड़े उद्योग, खदानें और बाँध परियोजनाएँ बनने के साथ हजारों परिवारों को विस्थापन की त्रासदी झेलनी पड़ी” – इस स्थिति का सामना झारखंड में हुआ है।
पलायन — आकड़ों के साथ
पलायन (माइग्रेशन) झारखंड की एक बड़ी सामाजिक चुनौती है। कुछ प्रमुख आकड़े इस प्रकार हैं:
2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में प्रवासी-मायग्रेंटों की संख्या लगभग 9,659,702 थी।
राज्य के बाहर काम की तलाश में निकलने वालों की संख्या भी काफी है — एक विश्लेषण के अनुसार लगभग 5 मिलियन (लगभग 50 लाख) लोग झारखंड से बाहर चले गए थे।
एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य में युवा पुरुषों व महिलाओं में लगभग 42 % (पुरुष) और 50 % (महिला) के बीच पलायन की प्रवृति देखने को मिली है — विशेष रूप से आदिवासी समुदायों में।
2011 जनगणना से यह भी पता चला कि राज्य के अंदरूनी पलायन (intrastate migration) का हिस्सा लगभग 81.34 % है, जबकि अन्य राज्यों में जाकर काम करने वाले (inter-state) लगभग 18.66 % हैं।
यह आकड़े यह इंगित करते हैं कि झारखंड के बहुत से लोग स्थानीय रोजगार-परिस्थितियों की कमी के चलते दूसरे राज्यों अथवा दूर-दराज के क्षेत्रों में जाने को मजबूर हैं।
आगे की राह — स्वप्नों का झारखंड
अब यह समय है कि झारखंड न सिर्फ संसाधनों पर निर्भर हो, बल्कि मनुष्यों-समुदायों पर निवेश करे। विस्थापन की बीमारी को कम करने के लिए पुनर्वास-नीति को मजबूत करना होगा, और पलायन को रोकने के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार-अवसरों का निर्माण करना होगा: कृषि-हस्तशिल्प-लघु उद्योग-पर्यटन को बढ़ावा देना होगा। शिक्षा-स्वास्थ्य को हर गाँव-तहसील तक पहुँचाना होगा।साथ ही आदिवासी एवं मूलवासी समुदायों के स्वामित्व अधिकार, भूमि-जल-जंगल के संरक्षण को सुनिश्चित करना होगा, ताकि उनका आधार हिल न सके।
निष्कर्ष
पच्चीस वर्षों (या उससे अधिक) में झारखंड ने कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की हैं — राज्य-पहचान, संसाधन-विकास के अवसर, शिक्षा-उच्चतर संस्थान। पर — विस्थापन, पलायन और असमान विकास जैसी चुनौतियाँ आज भी उसकी प्रगति की राह में हैं। यदि राज्य सही दिशा में कदम उठाए — यानी विकास को समावेशी, न्यायपूर्ण और स्थानीय-केंद्रित बनाए — तो यह राज्य सच्चे अर्थों में “धरती आबा का झारखंड” कहलाने योग्य बनेगा।
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