Celebrating the Real Spirit of Real India

सबकुछ है पर कुछ नहीं है।

 



मशहूर व्यंग्यकार स्वर्गीय शरद जोशी ने 1988 में यह व्यंग्य लिखा था लेकिन यह आज भी प्रासंगिक है। 

प्रतिदिन लोग एक छोटी सी शिकायत दर्ज कराते हैं कि साहब! नल है, मगर उसमें पानी नहीं आता। वे शायद नहीं जानते कि इस देश में चीजें होती ही इसलिए हैं ताकि उनमें वह न हो जिसके लिए वे होती हैं। नल में पानी नहीं आता। हैंडपंप हैं, मगर वे चलते नहीं हैं। नदियां हैं, मगर वे बह नहीं रहीं। विभाग है, जो काम नहीं करता। टेलिफोन लगाया, मगर लगा नहीं। अफसर है, मगर छुट्टी पर है। बाबू है, मगर उसे पता नहीं।
आवेदन दिया था, पर मंजूर नहीं हुआ। रिपोर्ट लिखाई थी, मगर कुछ हुआ नहीं। जांच हुई, पर परिणाम नहीं निकले। योजना स्वीकृत है, पर बजट मंजूर नहीं हुआ। बजट स्वीकृत है, पैसा नहीं आया। पद हैं, मगर खाली हैं। आदमी योग्य था, मगर तबादला हो गया। अफसर ठीक है, उसके मातहत ठीक नहीं हैं। मातहत काम करना चाहते हैं, मगर ऊपर से ऑर्डर तो मिले। मशीन आ गई, बिगड़ी पड़ी है। मशीन ठीक है, बिजली नहीं है। बिजली है, मगर तार खराब है। उत्पादन हो रहा है, मगर बिक नहीं रहा। मांग है तो पूर्ति नहीं। पूर्ति है तो मांग नहीं। यात्री हैं, मगर टिकट नहीं मिल रहा। टिकट मिल गया, रेल लेट है। रेल आई, मगर जगह न थी। जगह थी, उस पर सामान रखा था। एयर से जा रहे हैं, मगर वेटिंग लिस्ट में हैं। सीट कनफर्म है, फ्लाइट कैंसल हो गई। घर पहुंचे, मिले नहीं। मिले, मगर जल्दी में थे। तार भेजा था, पहुंचा नहीं। चिट्ठी भेजी, जवाब नहीं आया। पोस्टमैन गुजरा था, हमारा कोई लेटर नहीं था। आए, मगर आते ही बीमार हो गए। इंजेक्शन दिया, मगर कुछ हुआ नहीं। अस्पताल गए, बेड खाली नहीं था। बेड पर पड़े हैं, कोई पूछ नहीं रहा।
शिकायत करें, मगर कोई सुनने वाला नहीं है। नेता है, मगर कौन सुनता है। उसने सुन लिया, मगर कुछ कर नहीं सका। शिलान्यास हुआ था, इमारत नहीं बनी। इमारत बनी है, दूसरे काम में आ रही है। काम चल रहा है, पर हमें क्या फायदा। स्कूल है, एडमिशन नहीं है। पढ़ने गए थे, बिगड़ गए। टीम भेजी थी, हारकर लौटी। प्रोग्राम हुआ, मगर जमा नहीं। हास्य का था, हंसी नहीं आई।
कहा था, बोले नहीं। खबर थी, मगर वह अफवाह निकली। अपराध था, न्याय नहीं हुआ। संपादक के नाम पत्र भेजा था, छपा नहीं। कविता लिखी थी, कोई सुनने वाला नहीं। किताब छपी थी, बिकी नहीं। चाहिए, पर मिल नहीं रही। आई थी, चली गई। गए थे, मुलाकात न हुई। कुर्सी पर बैठा है, ऊंघ रहा है। फॉर्म भरा था, गलती हो गई। क्या बोले, कुछ समझ न आया। वादा किया था, भूल गए। याद दिलाया, तब तक उनका विभाग बदल गया।
फोन किया, बाथरूम में गए थे। दफ्तर किया, मीटिंग में थे। डिग्री मिल गई, नौकरी नहीं मिली। जब अनुभवी हुए, रिटायर कर दिए गए। अकाउंटेंट हैं, गबन कर गए। ढूंढ़ा बहुत, मिले नहीं। पुलिस है, चोर से मिली हुई है। पैसा है, ब्लैक का है। पूंजी जुटाई, मशीन के भाव बढ़ गए। फ्लैट खाली हैं, दे नहीं रहे। बेचना है, कोई खरीदार नहीं है। लेना चाहते हैं, मगर बड़ा महंगा है।
बरसात आ गई, पानी नहीं गिरा। दिल है, कहीं लगता नहीं। मनुष्य है, मानवता नहीं। जीवित है, आत्मा मर गई।
कितना कुछ होकर भी इस देश में वह नहीं है, जिसके लिए इतना कुछ है।
आप हैं कि नल में पानी नहीं आने की शिकायत कर रहे हैं।
(11 जून 1988 को प्रकाशित, सभार नवभारत टाइम्स)


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