भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसका संविधान है, जो प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का अधिकार देता है। इसके बावजूद आज देश में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, जहाँ धर्म के आधार पर अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अनुसूचित जातियों (एससी) को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने की बहस तेज होती जा रही है। विशेष रूप से ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को आरक्षण जैसी संवैधानिक सुविधाओं से बाहर करने की मांगें न केवल असंवैधानिक हैं, बल्कि सामाजिक सौहार्द के लिए भी गंभीर खतरा बन चुकी हैं।
भारतीय संविधान ने आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए की है, न कि किसी के धार्मिक विश्वास के आधार पर। अनुसूचित जनजातियों की पहचान उनकी ऐतिहासिक, सामाजिक और भौगोलिक स्थिति से होती है, न कि उनके धर्म से। इसके बावजूद कुछ राजनीतिक और सामाजिक समूह बार-बार यह भ्रम फैलाने का प्रयास कर रहे हैं कि धर्म परिवर्तन करने वाले आदिवासी अपनी जनजातीय पहचान खो देते हैं। यह तर्क न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि संविधान की मूल भावना के भी विरुद्ध है।
पूर्वोत्तर भारत के कई राज्यों में बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय ईसाई धर्म का पालन करते हैं। मिज़ोरम, नागालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में तो ईसाई आदिवासी समाज का बहुसंख्यक वर्ग हैं। इसके बावजूद उनकी जनजातीय पहचान, भाषा, परंपरा और सांस्कृतिक मूल्य सुरक्षित हैं। इसी प्रकार झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में भी आदिवासी समुदायों के भीतर विभिन्न धर्मों के अनुयायी एक साथ रहते हैं और सदियों से आपसी भाईचारे के साथ जीवन यापन करते आए हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि धर्म के नाम पर आदिवासी समाज को बांटने का प्रयास किया जा रहा है। इससे ईसाई, सरना, हिंदू और अन्य आस्थाओं को मानने वाले आदिवासियों के बीच अविश्वास की भावना बढ़ रही है। यह स्थिति न केवल सामाजिक एकता को कमजोर करती है, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को भी नुकसान पहुंचाती है। किसी भी अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को केवल उसकी धार्मिक आस्था के आधार पर आरक्षण के अधिकार से वंचित करना स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण है और यह संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
धर्म परिवर्तन को अक्सर राजनीतिक बहस का हथियार बनाया जाता है, जबकि इसके पीछे के वास्तविक सामाजिक कारणों — जैसे गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और सामाजिक भेदभाव — पर गंभीर चर्चा नहीं होती। यदि समाज का कोई वर्ग बेहतर जीवन, शिक्षा या सम्मान की तलाश में किसी अन्य धर्म को अपनाता है, तो उसे उसकी मूल पहचान से वंचित करना न केवल अमानवीय है, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के भी खिलाफ है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासी समाज की विशिष्ट पहचान और धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए। जनगणना में सरना जैसे पारंपरिक आदिवासी धर्म को पृथक कोड देने की मांग पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, ताकि आदिवासी आस्था प्रणालियों को संवैधानिक मान्यता मिल सके। भ्रम और टकराव की राजनीति को छोड़कर यदि संविधान की मूल भावना — समानता, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय — को केंद्र में रखा जाए, तभी एक सशक्त और समावेशी भारत का निर्माण संभव है।
(लेख – रिया तुलिका पिंगुआ)
إرسال تعليق