राँची;;भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना विविधताओं से भरी हुई है। इस विशाल विविधता के बीच आदिवासी समाज भारत के मूल निवासी हैं, जो प्रकृति के साथ गहरे संबंध रखते हैं। लेकिन भारतीय समाज में, विभिन्न प्रभुत्वशाली तत्वों ने हमेशा अपनी सुविधानुसार आदिवासी संस्कृति, परंपराओं और जीवनशैली को समझा है और उसे प्रभावित करने की कोशिश की है। इस संदर्भ में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके सहयोगी संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम की भूमिका पर कई बार चर्चा हो चुकी है।आदिवासियों की स्वतंत्र पहचान
आदिवासी समाज मूलतः प्रकृति पूजक है।
उनके देवता पेड़, नदियाँ, पहाड़, पशु-पक्षी और भूमि हैं।
आदिवासी समुदाय में मूर्ति पूजा, मंदिर जाना या दान दक्षिणा देने की प्रथा नहीं है।
जैसे गोंड, माड़िया, मुंडा, और संथाल आदिवासियों की पूजा पद्धतियाँ और धार्मिक मान्यताएँ हिंदू धर्म से पूरी तरह अलग हैं।उदाहरण के तौर पर, गोंडी धर्म में देवता हमेशा बैठी मुद्रा में होते हैं, पीला रंग पवित्र माना जाता है, परिक्रमा बाएँ से दाएँ की जाती है, और मृतकों को दक्षिण दिशा की ओर दफनाया जाता है। ये परंपराएँ वैदिक हिंदू धर्म से मेल नहीं खातीं।आर्य-आदिवासीवाद और हिंदूकरण के प्रयास इतिहास के कई संस्करणों के अनुसार, आदिवासी समाज इस भूमि के असली निवासी हैं, जबकि आर्य विदेशी आक्रमणकारी थे।आदिवासियों को 'पाँचवीं जाति' (निषाद) मानकर बहिष्कृत कर दिया गया।उनकी अलग पहचान को नकारते हुए, उन्हें हिंदू धर्म में सम्मिलित करने की कोशिश की गई।
आज भी, आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम आदिवासियों को "वनवासी हिंदू" कहते हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय खुद को हिंदू मानने के लिए तैयार नहीं है।वनवासी कल्याण आश्रम की भूमिका अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम आरएसएस की एक महत्वपूर्ण शाखा है। जबकि इसका घोषित उद्देश्य आदिवासी समुदाय का विकास है, वास्तविकता में इसके दो प्रमुख लक्ष्य हैं:आदिवासियों की परंपराओं, पूजा पद्धतियों और मान्यताओं को हिंदू धर्म से जोड़ने का प्रयास।ईसाई और इस्लाम धर्म अपना चुके आदिवासियों को सूची से बाहर करने का प्रयास। आदिवासी और धार्मिक स्वतंत्रता भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। आदिवासियों को दिए जाने वाले आरक्षण का आधार धर्म नहीं, बल्कि उनकी जाति/आदिवासी पहचान है।इसलिए, अगर कोई आदिवासी ईसाई या मुसलमान बनता है, तो भी उसकी आदिवासी पहचान नहीं बदलती। ऐसे में, केवल धर्म परिवर्तन के आधार पर आरक्षण समाप्त करने का प्रयास संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है।तो सवाल उठता है -हिंदू धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को सूची से बाहर क्यों नहीं किया जा रहा है?यह स्पष्ट रूप से बताता है कि यह कदम राजनीति और विचारधारा से प्रेरित है।इतिहास के उदाहरण भक्त बुलंद शाह (नागपुर शहर के संस्थापक, गोंड राजा) ने इस्लाम धर्म अपनाया, लेकिन कभी हिंदू धर्म में शामिल नहीं हुए।भगवान बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म अपनाने के बाद अपना बिरसाई धर्म बनाया, लेकिन हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं रखा।
जयपाल सिंह मुंडा (संविधान सभा के सदस्य, आदिवासी अधिकारों के प्रणेता) ने ईसाई धर्म अपनाया, लेकिन आदिवासियों को हिंदू मानने की अवधारणा को पूरी तरह नकारा।ये उदाहरण यह दर्शाते हैं कि आदिवासी समुदाय ने हमेशा अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखी है।
वर्तमान स्थिति: आदिवासी दिवस का विरोध
9 अगस्त को पूरी दुनिया में आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन आदिवासियों की पहचान, संस्कृति और अधिकारों को मान्यता देने के लिए समर्पित है। लेकिन हाल ही में, कुछ आरएसएस मीडिया संस्थानों ने इस दिन का विरोध किया। उनके अनुसार, यह दिन अंग्रेजों द्वारा विभाजन की नीति को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था। लेकिन सच्चाई यह है कि यह दिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित किया गया है और विश्व स्तर पर आदिवासी अधिकारों के समर्थन में मान्यता प्राप्त है।
आदिवासी समाज और हिंदू समाज के बीच मूलभूत अंतर स्पष्ट हैं। आदिवासी संस्कृति स्वतंत्र है और यह किसी धर्म की शाखा नहीं है। आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा आदिवासियों को हिंदू धर्म में सम्मिलित करने का प्रयास ऐतिहासिक सत्य और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। निष्कर्ष
आदिवासी समाज के संघर्षों ने भारत को अनेक नायक, क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी दिए हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उचित मान्यता नहीं मिल पाई है। आज की आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासी समाज को उनकी स्वतंत्र पहचान के साथ स्वीकार किया जाए, उनकी संस्कृति को समान सम्मान दिया जाए, और उनके अधिकारों की रक्षा की जाए। उन्हें हिंदू, मुसलमान या ईसाई के रूप में वर्गीकृत करके राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने के बजाय, यह समझना उचित होगा कि "आदिवासी आदिवासी हैं"।
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