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दीमा हसाओ का सबक: कौंसिल नहीं, ग्राम सभाएं हों सर्वोपरि — सुधीर पाल



दीमा हसाओ का उदाहरण झारखंड के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है। पिछले दिनों गुवाहाटी उच्च न्यायालय उस समय स्तब्ध रह गया जब यह सामने आया कि असम सरकार और दीमा हसाओ स्वायत्तशासी जिला परिषद (NCHAC) ने कोलकाता की महाबल सीमेंट कंपनी को 3,000 बीघा (लगभग 992 एकड़) ज़मीन आवंटित कर दी। यह ज़मीन उन आदिवासियों की थी, जिनकी पीढ़ियाँ परंपरागत रूप से उन गांवों में रहती आ रही थीं। ग्रामीणों को इसकी जानकारी तब हुई जब कंपनी ने गाँव में उत्खनन शुरू कर दिया। गाँव की परंपरागत सभा तो है, लेकिन कौंसिल सर्वोपरि मानी जाती है।

दीमा हसाओ स्वायत्त परिषद की 30 सदस्यीय संरचना में 28 निर्वाचित और 2 नामांकित सदस्य हैं। जनवरी 2024 के चुनाव में बीजेपी ने 25 सीटें जीतकर परिषद में दबदबा बना लिया है। वर्तमान में दीमा हसाओ में "ट्रिपल इंजन" की सरकार है।

फरवरी 2025 में आयोजित एड्वांटेज 2.0 में राज्य सरकार ने 2030 तक ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GSDP) को लगभग दुगुना यानी 143 बिलियन डॉलर करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तेज़ी से एमओयू किए जा रहे हैं, ज़मीनें और खदानें आवंटित की जा रही हैं।

गुवाहाटी हाई कोर्ट में चल रहे मुकदमे के याचिकाकर्ता कहते हैं कि यह मामला केवल 3,000 बीघा का नहीं है। अंबुजा सीमेंट, डालमिया सीमेंट, इंडिया सीमेंट कॉर्पोरेशन सहित लगभग आधे दर्जन कंपनियों को यहां से चूना पत्थर के उत्खनन और सीमेंट फैक्ट्री लगाने की अनुमति दी जा रही है। यह ज़मीन खेती योग्य है और स्थानीय आदिवासियों की आजीविका का एकमात्र स्रोत है।

संवैधानिक कवच का मज़ाक
गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दीमा हसाओ जैसे क्षेत्र में आदिवासियों के अधिकार और हित प्राथमिकता में होने चाहिए। न्यायमूर्ति एन. के. मेधी ने सरकार और परिषद से पूछा कि छठी अनुसूची के तहत संरक्षित क्षेत्र में इस प्रकार की भूमि हेराफेरी किस आधार पर की जा सकती है? उन्होंने यहां तक टिप्पणी की कि क्या यह कोई "मज़ाक" है कि जिन आदिवासियों की सुरक्षा हेतु अनुच्छेद 244(2) में विशेष प्रावधान किए गए हैं, उन्हीं को बेदखल कर दिया जाए?

न्यायमूर्ति मेधी ने यह भी कहा कि यह क्षेत्र पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र प्राकृतिक गर्म पानी के झरनों के लिए प्रसिद्ध है, और प्रवासी पक्षियों व दुर्लभ वन्यजीवों का ठिकाना है। यह पहाड़ियों और झरनों से युक्त एक संवेदनशील इकोसिस्टम का हिस्सा है। जब ऐसे क्षेत्रों में भारी उद्योग लगाए जाते हैं — चाहे वह सीमेंट कारखाना हो या खनन उद्योग — तो न सिर्फ सांस्कृतिक अस्मिता खतरे में पड़ती है, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन भी बिगड़ जाता है।

यह समस्या सिर्फ दीमा हसाओ की नहीं
नॉर्थ ईस्ट में दीमा हसाओ का मामला अकेला नहीं है। त्रिपुरा में त्रिपुरी आदिवासियों की ज़मीनें भी स्वायत्त परिषदों के बावजूद गैर-आदिवासियों के कब्ज़े में चली गईं। मेघालय में कोयला खनन के अवैध पट्टे परिषदों की मिलीभगत से जारी होते रहे हैं। मिज़ोरम में बांस और लकड़ी के संसाधनों को परिषदों के माध्यम से ठेकेदारों को हस्तांतरित कर दिया गया। ये सभी उदाहरण दर्शाते हैं कि छठी अनुसूची की व्यवस्था का व्यावहारिक इस्तेमाल आदिवासी स्वायत्तता के बजाय कॉर्पोरेट हितों की सेवा में अधिक हुआ है।

झारखंड के लिए सबक
दीमा हसाओ स्वायत्तशासी जिला परिषद और असम में बीजेपी की सरकार है। छठी अनुसूचित क्षेत्र में भू-अर्जन कानून 2013 लागू नहीं है। जबकि इस कानून में विकास कार्यों के लिए भूमि हस्तांतरण को अनुसूचित क्षेत्रों में अंतिम विकल्प माना गया है। छठी अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत राज व्यवस्था का प्रावधान नहीं है और न ही पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र की तरह पेसा कानून लागू है। जाहिर है कि यहाँ ग्राम सभाएं भी संविधानिक और कानूनी रूप से उतनी सक्षम नहीं हैं।

झारखंड में एक धड़ा लगातार यह मांग करता रहा है कि वहां भी छठी अनुसूची की तरह स्वायत्तशासी जिला परिषद बनाई जाए। लेकिन दीमा हसाओ का उदाहरण दिखाता है कि यह रास्ता आदिवासी हितों के लिए खतरनाक हो सकता है। पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र होने के नाते झारखंड में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था ग्राम सभाओं पर निर्भर है। ग्राम सभाएं निर्णय लेने वाली इकाई हैं और जिला परिषद उन निर्णयों को लागू करने वाली इकाई।

तीन महत्वपूर्ण सबक:
छठी अनुसूची में ग्राम सभा की शक्ति नहीं होती।
स्वायत्त जिला परिषद सत्ता का केंद्र बन जाती है और जनप्रतिनिधियों को साथ लेकर राज्य सरकार और पूंजीपति वर्ग गाँवों की जमीनें हड़प सकते हैं।

पाँचवीं अनुसूची और पेसा कानून के तहत ग्राम सभा सर्वोपरि होती है।
दीमा हसाओ की तरह अगर किसी जिले की ज़मीन अधिग्रहण करनी हो तो कम से कम 1000 ग्राम सभाओं की सहमति चाहिए — जो लगभग असंभव है। पेसा क्षेत्र की ग्राम सभाओं को सभी प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार है। वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनाश्रित समुदायों की अनापत्ति आवश्यक है।

स्वायत्त परिषदें अक्सर राजनीतिक सौदेबाज़ी और भ्रष्टाचार का अड्डा बन जाती हैं।
इससे आदिवासी समाज की सामूहिकता और पारंपरिक निर्णय प्रणाली कमजोर होती है।

अगर झारखंड में छठी अनुसूची जैसी व्यवस्था लागू होती है, तो ग्राम सभा की शक्ति कम हो जाएगी और कॉर्पोरेट तथा राजनीतिक दलों की पकड़ मज़बूत हो जाएगी।

पारंपरिक व्यवस्था का सम्मान नहीं
छठी अनुसूचित क्षेत्रों में गाँव स्तर पर पारंपरिक व्यवस्था है। दीमा हसाओ में 'गाँव बूढ़ा' गाँव का परंपरागत प्रधान होता है। वह गाँव के परिवारों से राजस्व वसूलकर उसे स्वायत्त परिषद को जमा करता है। ज़मीन का स्वामित्व सामुदायिक होता है और परिषद गाँव की ज़मीन का कस्टोडियन होती है।

प्रथागत कानून के अनुसार ज़मीन का हस्तांतरण समुदाय के बाहर नहीं किया जा सकता। गाँव की सभा की बैठक और 'गाँव बूढ़ा' की सहमति के बिना किसी प्रकार का आवंटन, हस्तांतरण या खनन मंज़ूर नहीं किया जा सकता। भूमि, खनन तथा प्रथाओं पर नियम बनाने का अधिकार परिषद के पास है। लेकिन इन नियमों का केंद्रीय कानूनों से कोई स्पष्ट लिंक नहीं है, जिससे परिषदें अपने हिसाब से निर्णय लेती रहती हैं।

निष्कर्ष: ग्राम सभा को मिले सर्वोपरि अधिकार
उत्तर-पूर्व के छठी अनुसूची क्षेत्र में स्वायत्त परिषदों का दायित्व है कि वे स्थानीय आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा करें और प्रथागत कानूनों के अनुसार शासन चलाएं। परिषद को आदिवासी परंपराओं, रीति-रिवाजों और विवादों का निपटारा पारंपरिक न्याय प्रणाली से करना चाहिए।

नॉर्थ ईस्ट सोशल ट्रस्ट (नेस्ट) के चेयरपर्सन तसादुक अरिफुल हुसैन का कहना है कि छठी अनुसूचित क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों की सार्थकता तभी होगी जब गाँव स्तर पर मज़बूत लिंक बने और ग्राम सभाओं को पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र की तरह कानूनी ताकत दी जाए। कौंसिल का निर्णय तभी मान्य माना जाए जब ग्राम सभाओं की अनुशंसा प्राप्त हो।

परिषदें आज राजनीतिक और आर्थिक सौदेबाज़ी का माध्यम बनती जा रही हैं। पारंपरिक सभाओं और समुदायों की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है।

इसलिए झारखंड में आदिवासी अधिकारों के संरक्षण, पारदर्शिता और स्थानीय भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए पेसा और ग्राम सभा जैसी लोकतांत्रिक संरचनाओं को और अधिक मजबूत करना अत्यंत आवश्यक है। स्वायत्त जिला परिषद की स्थापना तभी सार्थक होगी जब वह आदिवासी समुदाय के हितों के प्रति संवेदनशील और जवाबदेह हो — न कि केवल राजनीतिक और आर्थिक लाभ का माध्यम।

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