लेख्रक – भरत प्रसाद
मनुष्य के व्यक्तित्व के संदर्भ में एक सामान्य धारणा है कि जैसा वह दिखता है, जैसा व्यवहार करता है, जो विचार प्रकट करता है, या जैसे कर्म करता है—वही उसके स्थायी व्यक्तित्व के निर्धारक होते हैं। किंतु यह धारणा अपूर्ण और अर्धसत्य है। वास्तविकता इससे कहीं भिन्न है। प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तित्व त्रिस्तरीय होता है: पहला सांसारिक, जिसमें वह प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहता है; दूसरा मानसिक, जिसमें वह अप्रकट रहता है; और तीसरा कल्पनाधर्मी, जो चेतनामय है और जिसे प्राप्त करने की चेष्टा वह जीवनभर करता है।
इन तीनों आयामों का आपसी संघर्ष निरंतर बना रहता है। चाहे मनुष्य शांत हो या प्रसन्न, सुखी हो या निश्चिंत, सफल हो या संपन्न, उसके व्यक्तित्व के इन आयामों का द्वंद्व कभी समाप्त नहीं होता। इस द्वंद्व में ही उसका व्यक्तित्व विकसित होता है, मजबूत बनता है, और कई बार बौना या गैर-मानवीय भी हो जाता है। व्यक्तित्व का तीसरा, सूक्ष्मतम रूप ही नियंत्रक, सर्वाधिक शक्तिशाली और निर्णायक होता है। अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप हम जैसा बनना चाहते हैं या बनते हुए देखना चाहते हैं, वैसा ही आदेश हमारे शरीर के अंगों को प्राप्त होता है। इससे आंतरिक रसायन स्रावित होते हैं, भाव तरंगें अंतर्मन में जागृत होती हैं, और धीरे-धीरे शरीर उसी आकांक्षा के ढांचे में ढलने लगता है। यह शरीर निश्चय ही एक प्रयोगशाला है, एक आश्चर्यजनक रंगमंच, जिस पर हम जैसी भूमिका कुशलतापूर्वक निभाना चाहें, निभा सकते हैं। आकांक्षा की शक्ति इतनी प्रबल और चुम्बकीय होती है कि वह अनुकूल परिस्थितियां और अवसर भी सृजित कर लेती है।
जिसे हम प्रतिकूल दशाएं कहते हैं और प्रयत्न के समक्ष कठिन चुनौती मानते हैं, वे भी स्थायी सफलता के लिए अनिवार्य तत्व हैं। ये प्रतिकूल दशाएं ही आपकी सफलता की दीर्घायु सुनिश्चित करती हैं और उसे अधिक प्रामाणिक बनाती हैं। प्रगति की नींव को सर्वाधिक मजबूती प्रदान करने का कार्य ये कठिन संघर्ष ही करते हैं। व्यक्तित्व का एक चौथा आयाम भी है, जिसका ज्ञान स्वयं मनुष्य को भी नहीं होता। कभी-कभी लाखों में से दो-चार आत्मदर्शी, आत्मचेता और आत्मशोधक व्यक्ति उत्पन्न होते हैं, जो कुछ हद तक इस चौथे आयाम का साक्षात्कार करते हैं। इस आयाम का पूर्ण साक्षात्कार लगभग असंभव है, किंतु इस दिशा में थोड़ी-सी सफलता भी मनुष्य को विलक्षण व्यक्तित्व का स्वामी बना देती है। विज्ञान के अनुसार, हमारे मस्तिष्क की अधिकतम 10% क्षमता ही विकसित हो पाती है, वह भी असाधारण प्रयत्नों के बल पर। ठीक इसी प्रकार, हमारी भावनात्मक शक्ति का केवल कुछ प्रतिशत, हमारी कल्पनाशक्ति का थोड़ा-सा अंश, और हमारी मानवीय क्षमता का नगण्य हिस्सा ही विकसित हो पाता है। यह शरीर निश्चय ही प्रकृति का दिया हुआ एक अनुपम चमत्कार है, जिसमें आश्चर्यजनक शक्तियां निहित हैं। इन शक्तियों को निष्क्रिय रखने का सबसे बड़ा कारण यह आकर्षक, दृश्यमय, रंगमय, स्वादपूर्ण और नयनाभिराम संसार है, जो हमें बनाता भी है और सीमित भी करता है; ढांचा देता है, पर बौना भी बनाता है; दृष्टि प्रदान करता है, पर आंखों वाला अंधा भी बनाता है; ऊंचाई देता है, पर जमीन भी छीन लेता है। इसलिए, जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं, वह संसार के बीच निर्मित सफलताओं और ऊंचाइयों का एक ढेर मात्र है। व्यक्तित्व का वास्तविक साक्षात्कार इस ढेर के आनंद से मुक्ति में निहित है।
व्यक्तित्व के इन आयामों की कसौटी पर यदि महात्मा गांधी की परख करें, तो एक अनूठा और आश्चर्यजनक तथ्य सामने आता है: मोहनदास ने जितना स्वयं को निर्मित किया, उससे कहीं अधिक समय ने गांधी को गढ़ा। गांधी के व्यक्तित्व की असाधारण योग्यता उनकी मानवीय जिम्मेदारी की सटीक खोज और उसे प्राप्त करने के लिए की गई अथक कोशिश में निहित है। क्या गांधी स्वाभाविक रूप से विलक्षण थे? इसका प्रमाण उनकी किशोरावस्था में बहुत कम मिलता है, किंतु स्वयं के प्रति अद्भुत जवाबदेही, अपने कर्तव्यों के प्रति अटूट समर्पण, और भीतर उमड़ती असीम करुणा ने उन्हें ऐसे मानवीय स्तंभ के रूप में ढाला, जिसकी मिसाल केवल भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत में ही देखी जा सकती है। गांधीकालीन परिस्थितियां अत्यंत जटिल, कठिन और मानवता-विरोधी थीं।
यूरोप, जो नाममात्र के लिए आधुनिक काल में सांस ले रहा था—फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि—मानसिकता और इरादों में पूरी तरह साम्राज्यवादी और अधिनायकवादी था। इंग्लैंड, जो विश्व के नक्शे पर मध्यम आकार का देश था, ने तत्कालीन विश्व के अनेक देशों को अपने शिकंजे में जकड़ रखा था। उत्तर मध्यकाल के मुगल शासक अत्यधिक विलासप्रिय और सुविधाभोगी हो चुके थे, जिसके कारण उनमें यूरोप से व्यापार के बहाने आए फ्रांस और इंग्लैंड के सत्तालोलुप व्यापारियों को रोकने की इच्छाशक्ति ही नहीं बची थी। इन यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने धीरे-धीरे कूटनीति, आक्रमण, भूमि अधिग्रहण और युद्ध का जो जाल बुना, उसके प्रमाण भारतवर्ष के इतिहास के पन्नों में भरे पड़े हैं।
जब गांधी भारतीय राजनीति में उतरे, तब समूचा विश्व वर्चस्व और सत्ता की आग में अभूतपूर्व ढंग से झुलस रहा था। कई एशियाई देश इंग्लैंड के कब्जे से मुक्ति के लिए कठिन युद्ध की राह पर चल पड़े थे। स्वाधीनता आंदोलनों की शृंखला ऐसी खड़ी हुई कि समूचा विश्व मुक्ति के जन-आह्वान से गूंज उठा। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी का विश्व साम्राज्यवाद के खिलाफ जनचेतना की निर्बाध लहर और स्वाधीनता आंदोलनों के स्वर्णिम इतिहास का दौर था। भारतवर्ष, जो बारहवीं सदी से ही गुलामी, पर-शासन और दासता के अंधेरे में जी रहा था, उसकी छटपटाहट सबसे अलग थी।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी ने देशाटन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतमय होने के लिए उन्हें आम भारतीय बनना होगा। अत्यंत जमीनी अंदाज में अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण करना गांधी के जीवन का पहला क्रांतिकारी मोड़ था। यह इस अर्थ में महत्वपूर्ण था कि उन्होंने अपने त्याग को 33 करोड़ हिंदुस्तानियों के नाम समर्पित किया, जो न केवल गांधी, बल्कि भारतवर्ष के इतिहास में सदा के लिए दर्ज होने योग्य नजीर बन गई। उन्होंने केवल फकीराना वस्त्र ही नहीं पहने, बल्कि संपन्नता का ताना-बाना उतारकर वे अनूठे ढंग से समूचे भारत के जनहृदय से एकाकार हो गए। देश की जनता का अखंड विश्वास अर्जित करने और स्वयं को समूचे हिंदुस्तान का हितचिंतक सिद्ध करने का यह सबसे सटीक प्रयोग था। गांधी के व्यक्तित्व की समस्त सफलताओं का रहस्य उनकी कर्मठता, दृष्टि के प्रति अमल, और स्वयं की क्षमता पर अटूट विश्वास में निहित है। यदि इतिहास के पन्नों पर नजर डालें, तो न केवल उत्तर से दक्षिण भारत में अंग्रेजी सत्ता, व्यवस्था और शोषणवादी शासन के खिलाफ विद्रोह उठने लगे थे, बल्कि गांधी के अतिरिक्त अन्य जननायकों के नेतृत्व में कई देश गुलामी से मुक्ति का स्वप्न देखने लगे थे। गांधी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ दोबारा सात फेरे लिए, वह भी तब जब वे चार पुत्रों के समर्पित पिता थे। कस्तूरबा के साथ दोबारा सात फेरे लेने के दौरान ली गई अनूठी सपथें भी इतिहास के पृष्ठों पर दर्ज होने योग्य हैं।
गांधी अपने समय की धड़कन को असाधारण अनुभूतियों के साथ सुन रहे थे, समय की पुकार को रोम-रोम में जी रहे थे, और उसी के अनुरूप स्वयं को तराशने की अहर्निश जिद जगा रहे थे। वे स्वयं को बेमिसाल मानवता की भट्टी में तपा रहे थे। गांधी का त्याग आज हमें भीतर से आंदोलित करता है, जिसके पीछे उनकी अपार दुस्साहस, पवित्र जिद, असीम करुणा, और स्वयं को कसौटी पर चढ़ाने की दीवानगी थी। इसका अंदाजा बहुत कम विचारकों को हो पाता है। तत्कालीन समय में चारों ओर फैली, गूंजती, और जमी हुई गुलामी की परिस्थितियों ने गांधी को भीतर से मथकर, रगड़-रगड़कर ऐसा तराशा कि वे केवल समय के योग्य बन गए, और यही उनका ऐतिहासिक महत्व भी है।
मोहनदास से महात्मा गांधी बनने की अंत:प्रक्रिया इतनी कठिन, जटिल और प्रेरक है,कि वह बापू के सिवाय कोई नहीं जान सकता,और न जान पाएगा।जब एक साधारण जीवन जीता हुआ व्यक्ति विलक्षणता की राह पर आगे बढ़ता है,तो उसे अनिवार्य रूप से क ई विषम, विपरीत और सख्त चुनौती पेश करती हुई दशाओं का सामना करना होता है-बाहरी स्तर पर और भीतर स्तर पर भी।सांसारिक दशाएं, जरुरतें और विवशताएँ उसे कभी भी सामान्य से ज्यादा ऊपर उठने की छूट नहीं देतीं।क ई बार तो साधारण से भी नीचे गिर जाने को बार-बार विवश कर देती हैं, परिस्थितियां।किन्तु ऊंचाई का संकल्प बांधे व्यक्ति के लिए ये विपरीत दशाएं ही असली परीक्षाएं हैं,जमीनी कसौटियां हैं।जिससे जूझकर, तपकर, मजकर असल व्यक्तित्व निखरता है।जिसे आसानी से,बिना लड़े,हारे,टूटे,संकटग्रस्त हुए,मात खाए कोई मंजिल, शिखर, सफलता मिल जाय,वह छद्म ही सिद्ध होगी।इसीलिए कहा जाता है कि संघर्ष जितना बड़ा होता है-सफलता उतनी ही शानदार होती है।महात्मा गांधी जिस कालखंड में उतरते हैं, भारतीय राजनीति में,वह ब्रिटिश सरकार से कभी कुछ मांगे रखते,कभी साथ देते और कभी विरोध दर्ज करते नरमपंथी और गरमपंथी नेताओं का दौर है।तब भारतीय राजनीति में आंदोलन, सत्याग्रह और असहयोग जैसे शब्द महज किताबी बातें थीं।गांधी ने अचानक ही ,बिल्कुल मौलिक प्रयोग खड़ा कर दिया हो,ऐसा नहीं है।पहला अखिल भारतीय आंदोलन-असहयोग आंदोलन जिसकी ऐतिहासिक महत्ता असाधारण स्तर की है,गांधी का बिल्कुल रैशनल प्रयोग अवश्य कहा जा सकता है,क्योंकि न केवल तत्कालीन भारतीय राजनीति, बल्कि वैश्विक पटल पर भी किसी अन्य परतंत्र देश में भी ऐसा विलक्षण आंदोलन नहीं दिखाई देता।एक ऐसा आंदोलन जिसमें अहिंसक नैतिकता कूट-कूटकर भरी हुई।सच्चाई के प्रति ऐसी अविचल खड़ी कि शत्रु भी भीतर-भीतर गहन ग्लानि करने पर मजबूर हो जाय।और सत्ता के सामने खड़ा होने का माद्दा ऐसा कि सत्ताधारी भी एक बार बूझ ले कि असली सत्ता किसके पास होती है।गांधी जी का अलहदा प्रयोग यह कि बाहरी बदलाहट उनके लिए केवल परिणाम था।वे सारी ताकत भीतरी परिवर्तन पर झोंक देते थे।सीधे मर्म पर चोट करते थे,आंतरिकता पर उनकी दृष्टि सर्वाधिक जमी रहती थी।इस दृष्टि से गांधी को भारतीय राजनीति का कुशल मनोवैज्ञानिक कहा जाय,तो अतिशयोक्ति न होगी। भारतीय अतीत के सर्वश्रेष्ठ को न केवल आत्मसात करना,बल्कि अपने जीवन को,काया को उन सभी श्रेष्ठों की प्रयोगशाला बना लेना गांधी की महानता का रहस्य है।
"सत्य के प्रयोग अथवा मेरी आत्मकथा" शीर्षक ही,उनके भीतर जड़ जमा चुकी विकट मंशा का खुलासा कर देता है।गांधी में जो कुछ है-वह आंतरिक है,भावगत है,चेतनाधर्मी और आध्यात्मिक स्तर लिए हुए है। इसीलिये उनके व्यक्तित्व की परतों को सफलतापूर्वक खोलना इतना भी आसान नहीं।ऐसा व्यक्तित्व दो विपरितों के टकराहट के बीच निर्मित होता है।क ई तनावों के खींच-तान में परिपक्व होता है।अनेक पराजयों पर मानसिक विजय हासिल करने के बाद मजबूत बनता है।
महान व्यक्तित्व का रहस्य इसमें नहीं कि वह छोटी-छोटी घटनाएं, दशाओं, चुनौतियों से विचलित नहीं होता,बल्कि इसमें है, कि नगण्य से नगण्य बातें,घटनाएं भी उसे कितना विलक्षण ढंग से उसे विचलित करती रहती हैं।गांधी इसी कोटि के श्रेष्ठ व्यक्तित्व थे।जो रोज-रोज देश को जीते थे,देश की सांस उनकी सांस थे,देश का चैन उनका सुकून था,देश का भाव,उनके सभी भावों का प्रतीक था।गांधी एक साथ देशवादी हैं, तो विश्ववादी भी।स्थानीयता प्रेमी हैं, तो वैश्विकता के पक्षधर भी।यदि भारत और भारतीयता के प्रहरी हैं, तो मनुष्य के तौर पर अंग्रेजों के हितैषी भी।ध्यान देने और विचारने योग्य है ,कि जब असहयोग आंदोलन अपनी सफलता के करीब था,गांधी ने अचानक स्थगित कर दिया,वापस ले लिया। कारण बना चौरीचौरा कांड,जिसमें 22 अंग्रेज सिपाही जल मरे।केवल गांधी को छोड़कर अन्य कोई भी तत्कालीन राजनेता इस घटना पर मर्माहत न हुआ। बल्कि गांधी के अप्रत्याशित कदम की नेहरु,सुभाषचंद्र बोस सबने आलोचना की। गौतमबुद्ध का एक स्वर्णिम उपदेश है-"मुझे उस प्रारब्ध में विश्वास है,जिसे कोई मनुष्य तब तक हासिल नहीं कर सकता,जब तक उसके लिए श्रम न करे।" गांधी इस मंत्र पर खुद को तपा देने वाले जीते-जागते अविश्वसनीय इंसान थे।"
गांधी के प्रकट और अलक्षित व्यक्तित्व की ऊंचाई आंकने के लिए विश्व की असाधारण प्रतिभाओं ने शक्ति लगायी,फिर भी गांधी शेष ही रह जाते हैं।इसमें सबसे पहले जार्ज बर्नार्ड शा का सूत्र वाक्य देना तार्किक होगा-" गांधी के प्रभाव? आप हिमालय के कुछ प्रभावों के बारे में पूछ सकते हैं।" बताने की आवश्यकता नहीं,कि जार्ज की भीतर गांधी का कद क्या है। दूसरा नाम क्लीमेंट एटली का है, जिन्होंने भारत को आजाद करने का पहली बार संदेश दिया था।बहुत स्पष्ट, दो टूक और सीधे शब्दों में गांधी का कद हृदयांकित करते हैं-"महात्मा गांधी विश्व के महान व्यक्ति थे।वह घोर तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे।करोड़ों देशवासी उन्हें दैवीय प्रेरणा प्राप्त संत मानते थे । लक्ष्य साधन में उनकी सच्चाई और निष्ठा पर उंगली नहीं उठाई जा सकती।" अब देखिए एक और वैश्विक जीनियस का उद्दाम उद्गार, जो न जाने कितनी बार,कितनों के मुख से,कहाँ कहाँ उच्चरित होता ही रहता है-" महात्मा गांधी ऐसे विजयी योद्धा रहे,जिसने बल प्रयोग का सदा उपहास उड़ाया।वह बुद्धिमान, नम्र,दृढ़ संकल्पी और निश्चय के धनी थे।" 【अल्बर्ट आइंस्टाइन】
अनुमान को यकीन में न बदलने का एक भी कारण नहीं, कि गांधी जितने बड़े बाहर से दिखते थे,उससे कहीं ज्यादा ऊंचाई उनके भीतर आकाशवत थी।इसे हम इस ढंग से समझें।एक वृक्ष जितना ऊंचा दिखता है,उससे कहीं ज्यादा होता है।क्योंकि उसकी मुकम्मल ऊंचाई में जड़ों की गहराई अनिवार्यतः शामिल है।स्तम्भ जो जमीन में धंसा है,वह भी दिखती ऊंचाई से कहीं ज्यादा है।जब हम एक जंगल देखते हैं, तो एक-एक वृक्ष को कहाँ देखते हैं? जब दरख्त देखते हैं, तो पत्तियों, डालियों, टहनियों को कहां देखते हैं।उसी तरह जिस मनुष्य का कद एक असाधारण शिखरत्व लिए हुए है, तो उसकी गहराई भी असाधारण ही होगी।उसका हृदय,मष्तिष्क, मन,संवेदना और सजगता भी अद्भुत होगी।जब भीतरी विलक्षणता के क ई तार एक साथ जुड़कर आंतरिक विद्युत पैदा करते हैं, तब जाकर बाहर दिखते एक विलक्षण व्यक्तित्व का आविर्भाव होता है।जिस तरह समुद्र पर तैरता हिमखंड 2/3 अनदिखा ही रहता है, वैसे ही प्रत्येक दृश्य की सत्ता।जो नहीं दिख रहा,वही दिखते हुए का मूलाधार है।असल कारण है।दृश्य का बीज अदृश्य की सत्ता है।यही बात न केवल गांधी, बल्कि साधारण से साधारण आदमी का भी सच है।इस जगत में कुछ भी सरल,स्पष्ट, सीधा,साधारण नहीं।गांधी ऐसे अकेले अहिंसक सेनानी थे,जो अंग्रेजों को अपने व्यक्तित्व का मुरीद बनाकर उन्हीं के खिलाफ लड़ने का माद्दा रखते थे।
ब्रिटिश हूकूमत उनको जेल में भी डालती है, और कटघरे में लाते हुए शर्मसार भी होती है।असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद जब गांधी को छ: वर्ष की सजा तय हुई,तो जेल भेजने के ठीक पहले जज ब्रूमफील्ड के सामने कटघरे में खड़ा किया गया।अद्भुत दृश्य उपस्थित था,सामने।गांधी के सम्मान में खुद जज अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।तत्कालीन विश्व की सबसे बड़ी शक्ति से विरोध मोल लेता,एक निहत्था ,दुबला हिन्दुस्तानी कितने दुश्मनों के हृदय पर राज करता था,इसे समझ पाना,आकलन कर पाना आसान नहीं। ब्रिटिश लेखक रस्किन का विचार है-" हमेशा धारा के विपरीत तैरना चाहिए।" और कहना जरूरी है, कि इन्हीं रस्किन साहब की पुस्तक-"अन टू दिस लास्ट" का गहरा ,अमिट प्रभाव गांधी जी पर पड़ा। हकीकत तो यह है,कि सांस दर सांस एकनिष्ठ श्रम की नींव पर ही आंतरिक व्यक्तित्व का शिखर खड़ा हो पाता है।किसी भी सार्थक क्षेत्र में उच्चता विरासत में,संयोग से,अचानक नहीं मिलती।उसकी स्थायी उपलब्धि की शर्त है-शक्ति को चुका देने वाली साधना।शिखर की उपलब्धि बस मोहक भ्रम है।यथार्थ तो यह कि श्रमपूर्वक की गयी यात्रा, स्वयं छोटी-छोटी मंजिलों का पड़ाव है।टैगोर ने लिखा जरूर एक गीत-"एकला चलो रे!" परन्तु इसको अपने विकट कद से सिद्ध किया कर्मसाधक गांधी ने।देखिए न एक बेलीक विचार, जो शायद गांधी के सिवाय उस युग में कोई कह ही नहीं सकता था-" किसी भी देश की महानता और उसकी नैतिक उन्नति का अंदाज़ा हम वहाँ जानवरों के साथ होने वाले व्यवहार से लगा सकते हैं।" निष्कर्ष बिल्कुल साफ है,जिसने खुद को खो देने की हिम्मत जुटा ली,खुद को सप्रेम लुटा देने की हुनर सीख ली,वही मानवता के सबसे स्थायी विजेताओं में से गिना जाता है।
तप कर,मजकर चमकदार बन चुके चट्टाननुमा व्यक्तित्व के बल पर गांधी ने देश की आजादी का महत्तम स्वप्न साकार किया,जो किसी मद्धिम आंच रखने वाले राजनेता के लिए कतई असंभव था।वैचारिक क्षेत्र में गांधी ने अनेक प्रयोग आजमाए और देखते ही देखते नयी-नयी राहों की श्रृंखला ही खड़ी हो गयी। सत्याग्रह, असहयोग, करो या मरो-राजनीति के मैदान में खड़े किए गये विचार हैं।सर्वोदय, ट्रस्टीशिप,हृदय परिवर्तन, बुनियादी तालीम इत्यादि गांधी के द्वारा पेश किए गये गैर राजनीतिक विचार हैं।उनके नेक व्यक्तित्व के कुछ विरोधाभास भी हैं, जिसे जानना बहुत आवश्यक है।सभी धर्मावलंबियों के बीच एकता और भाईचारे का आह्वान करने वाले बापू खुद को हिन्दू धर्मावलंबी कहने का मोह छोड़ न सके।यदि धर्म से विमुक्त मनुष्य की भूमिका में खुद को घोषित कर पाते तो गांधी का वह स्वरुप प्रकट होता,जिसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती थी। एक टिप्पणी में वे हिन्दू धर्म पर दृष्टि रखते हैं-" सत्य की अथक खोज का दूसरा नाम ही हिन्दू धर्म है।"【 गांधी वांग्मय- सन्-1924】
दो मत नहीं, कि यहाँ गांधी की रेशनल अंतर्दृष्टि नहीं, संसारबद्ध भावना सक्रिय है, जो उनके विवेक पर हावी होकर कहलवा रही है। वरना यह बात गांधी भी जानते थे,कि धर्म के नाम पर बंटे हुए धर्मालु जन मूलतः एक ही तत्व, एक ही मिट्टी, एक ही भौतिक सत्ता से बने हुए हैं।शरीर बस शरीर है-मिट्टी की धड़कती मूरत। वह न राम से बनी,न रहीम से।उसे न ईसा से बनाया,न मुहम्मद ने।वह न अछूत है, न निम्न या उच्च।वह बस है,एक सृष्टिगत चमत्कार।इंसान रोज-रोज अपने शरीर सहित अनेक शरीर धारियों के साथ जी रहा है, परन्तु खांचे में खंडित निगाहों के साथ देखता यह आदमी आदमी के स्वरूप की एकाश्मक पहचान अभी कर ही नहीं पाया।क्या फर्क पड़ता है,ईसा पूर्व पैदा होने और 21 वीं सदी में जन्मने से। मनुष्य न पुराना था,न नया हुआ है। यह बस बदलते युग के रंगों का बाहरी असर है,जो युगानुकूल आंतरिक परिवर्तन भी ला देता है। गांधी के चिंतन पक्ष की दुखद दुर्बलता यह भी कि तार्किक ढंग से निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाय एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह विचार रख देते हैं। और ऐसा चिंतन जिसमें तटस्थता का धैर्य न हो,मुक्ति की लहक न हो,स्व से पृथकत्व का साहस न हो-अनुचित निष्कर्ष की ओर ले जाता है। पेश हैगांधी का एक और अस्वीकार्य विचार, जो उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को लेकर दिए हैं-"वर्णाश्रम धर्म के सिद्धांत की खोज सत्य की निरंतर खोज का अत्यंत सुंदर परिणाम है।"【यंग इंडिया-20 अक्टूबर, 1927】
गांधी अग्रगामी सोच रखने के बावजूद क ई बार पश्चगामी रुख अख्तियार कर लेते थे।एक तरफ हिन्दू धर्म की जय जयकार, दूसरी तरफ हिन्दुत्व पंथियों की आलोचना।एक तरफ अस्पृश्य जातियों की पक्षधरता, दूसरी तरफ वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रति प्रेम,एक तफ हिन्दू-मुस्लिम एकता का आह्वान, दूसरी तरफ खुद को हिन्दू घोषित करने का एक भी मौका न छोड़ना।यदि गांधी की मानसिकता की तटस्थ पड़ताल करें,तो उन्हें एक दुविधाग्रस्त और संशयजीवी व्यक्ति के रूप में भी पाते हैं।हर मौके पर और प्रत्येक कसौटी पर गांधी वही गांधी नहीं, जो वे यकीनन भीतर से थे।परमात्मा का व्यामोह वे जीवनपर्यंत न छोड़ पाए,एक अजीब सा तर्कहीन,बल्कि असजग ,भीरू मन उनके भीतर बैठा हुआ दिखाई देता है।ईश्वर की निगाहों में खुद को निर्दोष सिद्ध करने के लिए वे अछूतों की सेवा करना चाहते हैं, न कि खुद की निगाहों में श्रेष्ठ बनने के लिए। देखिए निष्कर्ष-" उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के दरबार में हमारी पहचान इस बात से नहीं होगी कि हमने क्या-क्या खाया पिया है और किस-किसका स्पर्श किया है, बल्कि इस बात से होगी कि हमने किस-किसकी सेवा की है और किस-किस तरह से की है।यदि हमने किसी भी विपत्तिग्रस्त और दुखी मनुष्य की सेवा की होगी,तो वह अवश्य हम पर कृपादृष्टि डालेगा।"
【छूआछूत-5 जनवरी,1922】
इन सारी वैचारिक गांठों ,उलझनों और प्रतिगामी निगाहों के बावजूद गांधी का ऐतिहासिक चिंतन सलाम करने योग्य है,जब वे अहिंसा, सत्य, प्रेम को ईश्वर का दर्जा देते हैं।उनके लिए यह केवल आदर्शवाद की घोषणा नहीं, बल्कि वर्षों के एकांतिक अनुभूति से उपजी गहन दृष्टि है, जो मनुष्य मात्र के लिए रौशनी से बढ़कर काम करती है।
वर्तमान में पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग (मेघालय) में हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं।
ई मेल-deshdhar@gmail.com मोबाइल – 9077646022



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