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सूर्योपासना का महापर्व छठ


– चन्द्र प्रकाश झा

छठ पूजा, सूर्य और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और आस्था का प्रतीक, भारत के सबसे पवित्र और प्राचीन पर्वों में से एक है। यह महापर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल के तराई क्षेत्रों में बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक चलने वाला यह चार दिवसीय अनुष्ठान न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी अनुपम है।

छठ पूजा में सूर्य देव और छठी मैया की आराधना की जाती है, जिन्हें संतान सुख, आरोग्य और समृद्धि का वरदाता माना जाता है। यह पर्व वैदिक काल से चली आ रही सूर्योपासना की परंपरा को दर्शाता है, जिसमें उदीयमान और अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर जीवन शक्ति और प्रकृति के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है। बिना किसी पंडित या पुरोहित के सहारे, यह लोकपर्व जन-सामान्य की आस्था और सामूहिक सहभागिता का प्रतीक है, जो पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक एकता को भी बढ़ावा देता है। बिहार की सांस्कृतिक पहचान के रूप में स्थापित छठ पूजा आज विश्व भर में प्रवासी भारतीयों के माध्यम से फैल चुकी है, जो इसे एक वैश्विक लोक उत्सव का स्वरूप प्रदान करता है।

सूर्योपासना का महापर्व छठ कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को ‘नहाय-खाय’ के साथ शुरू होता है। चार दिनों के इस पर्व में छठी मैया और सूर्य देवता की पूजा की जाती है। ऐसा विश्वास है कि छठी मैया की पूजा से संतान सुख, आरोग्य, और समृद्धि प्राप्त होती है। सन 2005 में छठ पर्व 25 अक्टूबर से शुरू होकर 28 अक्टूबर को समाप्त हुआ। इस पर्व के प्रत्येक दिन का विशेष महत्व है। शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक मास में सूर्य अपनी नीच राशि में होता है, इसलिए उसकी विशेष उपासना की जाती है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सामान्यतः हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला यह पर्व है। सूर्योपासना का यह लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पर्व मैथिल, मगही, और भोजपुरी लोगों का सबसे बड़ा पर्व है। छठ पर्व बिहार में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व बिहार और पूरे भारत का ऐसा पर्व है, जो वैदिक काल से चला आ रहा है और अब इन क्षेत्रों की संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका है। यह पर्व बिहार की वैदिक आर्य संस्कृति की एक छोटी-सी झलक है, जिसमें ऋग्वेद में वर्णित उदयमान और अस्ताचलगामी सूर्य की पूजा की जाती है।

बिहार में इस पर्व को इस्लाम और अन्य धर्मों के लोग भी मनाते हैं। यह फसली त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ अन्य देशों में भी प्रचलित हो गया है। छठ पूजा सूर्य, प्रकृति, जल, वायु, और उनकी बहन छठी मैया को समर्पित है, ताकि पृथ्वी पर जीवन जीने के लिए ऊर्जा प्राप्त हो सके। छठी मैया को मिथिला में ‘रनबे माय’, भोजपुरी में ‘सबिता माई’, और बंगाली में ‘रनबे ठाकुर’ कहा जाता है। पार्वती का छठा रूप, भगवान सूर्य की बहन छठी मैया को, इस त्योहार की देवी के रूप में पूजा जाता है। यह पर्व दीपावली के छह दिन बाद, कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। मिथिला में छठ के समय मैथिल महिलाएं शुद्ध पारंपरिक संस्कृति को दर्शाने के लिए बिना सिलाई की शुद्ध सूती धोती पहनती हैं। इस त्योहार के चार दिनों के अनुष्ठान कठिन हैं, जिनमें पवित्र स्नान, उपवास, पानी न पीना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, प्रसाद, और अर्घ्य देना शामिल है। इसमें बड़ी संख्या में पुरुष भी भाग लेते हैं। छठ महापर्व का व्रत स्त्रियां, पुरुष, बुजुर्ग, और युवा सभी करते हैं। कुछ भक्त नदी के किनारों तक पैदल यात्रा भी करते हैं। पर्यावरणविदों का दावा है कि छठ सबसे पर्यावरण-अनुकूल हिंदू त्योहार है। यह त्योहार न केवल नेपाल में, बल्कि विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भी मनाया जाता है।

बिहार के मुंगेर में सीता मनपत्थर मंदिर गंगा नदी के बीच में एक शिलाखंड पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि माता सीता ने मुंगेर में छठ पर्व मनाया था, जिसके बाद इस महापर्व की शुरुआत हुई। इसलिए मुंगेर और बेगूसराय में छठ महापर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। एक कथा के अनुसार, प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे, तब देवमाता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र, त्रिदेव रूप आदित्य भगवान ने, असुरों पर देवताओं को विजय दिलाई। छठ वास्तव में ‘षष्ठी’ का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली मनाने के बाद चार दिनों के व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। इस तिथि को व्रत मनाए जाने के कारण इसका नाम ‘छठ व्रत’ पड़ा। छठ पूजा हर वर्ष दो बार होती है—एक चैत्र मास में और दूसरी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, और सप्तमी तिथि तक। षष्ठी देवी माता को कात्यायनी माता भी माना जाता है। नवरात्रि के दिनों में लोग षष्ठी माता की पूजा करते हैं, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों की सुरक्षा और स्वास्थ्य लाभ की कामना की जाती है। षष्ठी माता, सूर्य भगवान, और मां गंगा की पूजा लोकप्रिय हो गई है। यह प्राकृतिक सौंदर्य और परिवार के कल्याण के लिए की जाने वाली महत्वपूर्ण पूजा है, जिसमें गंगा या मीठे पानी की नदी-तालाब में लोग खड़े होते हैं। इसीलिए छठ पूजा के लिए नदियों और तालाबों की साफ-सफाई की जाती है और उन्हें सजाया जाता है।

छठ वास्तव में लोक आस्था का पर्व है, जिसमें किसी पंडित या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती। यह भारत में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है। मूलतः सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे ‘छठ’ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार—चैत्र में और कार्तिक में—मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर इसे ‘चैती छठ’ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर इसे ‘कार्तिकी छठ’ कहा जाता है। यह पर्व पारिवारिक सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए मनाया जाता है। स्त्रियां और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं। छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें एक कथा के अनुसार, जब महाभारत काल में पांडवों ने अपना राजपाट जुए में हार लिया था, तब भगवान कृष्ण के कहने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। इससे उनकी मनोकामनाएं पूरी हुईं और पांडवों को उनका राजपाट वापस मिला। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मैया का संबंध भाई-बहन का है।

छठ पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। षष्ठी तिथि को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, जिससे सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक एकत्र हो जाती हैं। इसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। पर्व पालन से सूर्य की पराबैगनी किरणों के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर आता है, तब पहले वायुमंडल में प्रवेश करता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयनमंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्व को संश्लेषित कर उसे एलोट्रॉप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया से सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुंचता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर आने वाली पराबैगनी किरणों की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है। सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर इसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप में हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ होता है। छठ जैसी खगोलीय स्थिति में, चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की समरेखा के दोनों छोरों पर सूर्य की पराबैगनी किरणें, चंद्र सतह से परावर्तित होकर, पृथ्वी पर सामान्य से अधिक मात्रा में आती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई किरणें सूर्यास्त और सूर्योदय के समय और भी सघन हो जाती हैं। ज्योतिषीय गणना के अनुसार, यह घटना कार्तिक और चैत्र मास की अमावस्या के छह दिन बाद होती है। इसी ज्योतिषीय गणना के आधार पर इसका नाम ‘छठ पर्व’ रखा गया है।

यह पर्व चार दिनों का है और भाईदूज के तीसरे दिन शुरू होता है। पहले दिन सेंधा नमक और घी से बना अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में खाई जाती है। अगले दिन से उपवास शुरू होता है, जिसमें व्रती दिनभर अन्न और जल का त्याग करते हैं। शाम करीब सात बजे खीर बनाकर पूजा करने के बाद जो प्रसाद ग्रहण किया जाता है, उसे ‘खरना’ कहते हैं। तीसरे दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य, यानी दूध अर्पण किया जाता है। अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य चढ़ाया जाता है। पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसमें लहसुन और प्याज वर्जित हैं। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्ति गीत गाए जाते हैं और फिर लोगों को पूजा का प्रसाद वितरित किया जाता है। छठ पूजा चार दिनों का लोक उत्सव है, जिसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को होती है और समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का निर्जला व्रत रखते हैं, जिसमें पानी भी नहीं पीते।

नहाय-खाय

छठ पर्व का पहला दिन ‘नहाय-खाय’ है, जो चैत्र या कार्तिक मास की शुक्ल चतुर्थी से शुरू होता है। सबसे पहले घर की साफ-सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। फिर व्रती नजदीकी गंगा नदी, उसकी सहायक नदी, या तालाब में स्नान करते हैं। व्रती इस दिन नाखून आदि को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से बाल धोकर स्नान करते हैं। वे स्नान के बाद गंगाजल साथ लाते हैं, जिसका उपयोग खाना बनाने में किया जाता है। वे अपने घर और आसपास को साफ-सुथरा रखते हैं। व्रती इस दिन केवल एक बार ही भोजन करते हैं। भोजन में कद्दू की सब्जी, मूंग-चना दाल, और चावल का उपयोग होता है। तली हुई पूरियां, पराठे, और अन्य सब्जियां वर्जित हैं। यह भोजन कांसे या मिट्टी के बर्तनों में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिट्टी के चूल्हे का उपयोग किया जाता है। भोजन तैयार होने पर सर्वप्रथम व्रती भोजन करते हैं, उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं।

खरना और लोहंडा

छठ पर्व का दूसरा दिन, जिसे ‘खरना’ या ‘लोहंडा’ के नाम से जाना जाता है, चैत्र या कार्तिक मास की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पूरा दिन उपवास रखते हैं और सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते। शाम को चावल, गुड़, और गन्ने के रस से खीर बनाई जाती है। खाना बनाने में नमक और चीनी का उपयोग नहीं होता। इस खीर और रोटी को सूर्यदेव को नैवेद्य अर्पित कर व्रती एकांत में ग्रहण करते हैं। इस दौरान परिवार के सभी सदस्य घर से बाहर चले जाते हैं, ताकि कोई शोर न हो। एकांत में भोजन करते समय किसी भी प्रकार की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है। इसके बाद व्रती अपने परिवार, मित्रों, और रिश्तेदारों को खीर और रोटी का प्रसाद वितरित करते हैं। इस प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं। चावल का पिठ्ठा और घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में बांटी जाती है। इसके बाद व्रती अगले 36 घंटों के लिए निर्जला व्रत शुरू करते हैं। मध्यरात्रि में व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ‘ठेकुआ’ बनाते हैं।

संध्या अर्घ्य

छठ पर्व का तीसरा दिन ‘संध्या अर्घ्य’ है, जो चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारियां करते हैं। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ और चावल के लड्डू (जिन्हें ‘कचवनिया’ भी कहा जाता है) तैयार किए जाते हैं। पूजा के प्रसाद और फल बांस की टोकरी (दउरा) में रखकर देवकारी में रखे जाते हैं। वहां पूजा-अर्चना के बाद, शाम को सूप में नारियल, पांच प्रकार के फल, और अन्य पूजा सामग्री डालकर दउरे में रखी जाती है। घर का पुरुष इसे सिर पर उठाकर छठ घाट ले जाता है, ताकि यह अपवित्र न हो। छठ घाट की ओर जाते समय महिलाएं प्रायः छठ के गीत गाती हैं। नदी या तालाब के किनारे पहुंचकर महिलाएं घर के किसी सदस्य द्वारा बनाए गए चबूतरे पर बैठती हैं। नदी से मिट्टी निकालकर छठ माता का चौरा बनाया जाता है, जिस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढ़ाया जाता है और दीप जलाए जाते हैं। सूर्यास्त से कुछ समय पहले, सूर्यदेव की पूजा का सारा सामान लेकर व्रती घुटने भर पानी में खड़े होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं और पांच बार परिक्रमा करते हैं।

पूजा सामग्री में व्रतियों द्वारा बनाया गया गेहूं के आटे का ‘ठेकुआ’ शामिल होता है। ठेकुआ इसलिए कहलाता है, क्योंकि इसे काठ के विशेष सांचे पर आटे की लुगदी को ठोककर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त, कार्तिक मास में खेतों में उपजे नए कंद-मूल, फल, सब्जियां, मसाले, और अन्न जैसे गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, बड़ा नींबू, पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं बिना कटे-टूटे (साबूत) अर्पित की जाती हैं। इसके अलावा, दीप जलाने के लिए नए दीपक, नई बत्तियां, और घी ले जाकर घाट पर दीप जलाए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण अन्न ‘कुसही केराव’ के दाने (हल्का हरा-काला, मटर से छोटा दाना) हैं, जो टोकरी में लाए जाते हैं, लेकिन संध्या अर्घ्य में सूर्यदेव को अर्पित नहीं किए जाते। इन्हें अगले दिन सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। कुछ लोग घाट पर रात भर ठहरते हैं, जबकि कुछ लोग छठ गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर लौट आते हैं और उसे देवकारी में रख देते हैं।


उषा अर्घ्य

चौथे दिन, कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह, उदयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा के लिए पहुंच जाते हैं, और संध्या अर्घ्य की तरह उनके परिवारजन उपस्थित रहते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से बदल दिया जाता है, लेकिन कंद, मूल, और फल वही रहते हैं। सभी नियम-विधान संध्या अर्घ्य जैसे ही होते हैं, सिवाय इसके कि व्रती पूरब की ओर मुंह करके पानी में खड़े होकर सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्त होने के बाद घाट का पूजन किया जाता है। वहां उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरित किया जाता है। इसके बाद व्रती घर लौटकर अपने परिवार को भी प्रसाद बांटते हैं। व्रती गांव के पीपल के पेड़, जिसे ‘ब्रह्म बाबा’ कहते हैं, वहां जाकर पूजा करते हैं। पूजा के बाद व्रती कच्चे दूध का शरबत और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं, जिसे ‘पारण’ या ‘परना’ कहते हैं। खरना के दिन से शुरू हुआ निर्जला उपवास आज सुबह नमकयुक्त भोजन के साथ समाप्त होता है।

छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है, जो एक कठिन तपस्या है। यह व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है, हालांकि कुछ पुरुष भी इसे रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को ‘परवैतिन’ कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ-साथ सुखद शय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे रात बिताते हैं। इस उत्सव में शामिल लोग नए कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं होती। व्रतियों के लिए ऐसे कपड़े पहनना अनिवार्य है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। छठ पर्व शुरू करने के बाद इसे सालों तक तब तक करना होता है, जब तक अगली पीढ़ी की कोई विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु होने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता। ऐसी मान्यता है कि छठ व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत और उनकी कुशलता के लिए सामान्यतः महिलाएं यह व्रत रखती हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि के लिए व्रत रखते हैं।

छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं, जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नियां उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ इन दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रातःकाल में सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में अंतिम किरण को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। भारत में सूर्योपासना ऋग्वेद काल से होती आ रही है। सूर्य और उनकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है। मध्यकाल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो आज तक चला आ रहा है। सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में शुरू हुई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों और उपनिषदों जैसे वैदिक ग्रंथों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचयिता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को प्रथम स्थान दिया है।

मानवीय रूप की कल्पना

उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। कालांतर में यह सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल तक सूर्य पूजा का प्रचलन और बढ़ गया। अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाए गए।

आरोग्य देवता के रूप में

पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसंधान के दौरान किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। संभवतः यही छठ पर्व के उद्भव का समय रहा हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।

पौराणिक और लोक कथाएं

छठ पूजा की परंपरा और इसके महत्व को दर्शाने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएं प्रचलित हैं।

रामायण से

एक मान्यता के अनुसार, लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन, कार्तिक शुक्ल षष्ठी को, भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया।

महाभारत से

एक अन्य मान्यता के अनुसार, छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण सूर्यदेव के परम भक्त थे और प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। सूर्यदेव की कृपा से ही वे महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य पूजा का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।

पुराणों की एक कथा

पुराणों के अनुसार, राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ। प्रियव्रत पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी समय ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुईं और बोलीं, “सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। हे राजन! मेरी पूजा करें और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें।” राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

सामाजिक/सांस्कृतिक महत्व

छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता, और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बांस से बने सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तन, गन्ने का रस, गुड़, चावल, और गेहूं से बने प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर यह लोक जीवन की मिठास का प्रसार करता है। शास्त्रों से अलग, यह जन-सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों में गढ़ी गई उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रंथ नहीं, बल्कि किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न तो विशेष धन की आवश्यकता है और न ही पुरोहित या गुरु की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की, जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की साफ-सफाई, व्रतियों के मार्ग का प्रबंधन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की व्यवस्था के लिए समाज सरकार की सहायता की प्रतीक्षा नहीं करता। खरना से लेकर अर्घ्य दान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।

छठ गीत

लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर, जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने जाते समय, अर्घ्य दान के समय, और घाट से घर लौटते समय, अनेक सुमधुर और भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाए जाते हैं।

  • केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय
  • काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए
  • सेविले चरन तोहार, हे छठी मइया, महिमा तोहर अपार
  • उगु न सुरुज देव, भइलो अरग के बेर
  • निंदिया के मातल सुरुज, अँखियो न खोले हे
  • चार कोना के पोखरवा, हम करेली छठ बरतिया से उनखे लागी

छठ पूजा के काल में घाट

दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ पर्व चार दिनों तक चलता है। इन चारों दिनों में श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्ष भर सुखी, स्वस्थ, और निरोगी रहने की कामना करते हैं। पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की जाती है।

छठ पूजा और बिहारवासियों की पहचान

छठ पूजा को देश के कई हिस्सों में बिहार और उत्तर प्रदेश से आए उत्तर भारतीय आर्य लोगों की पहचान के रूप में देखा जाता है। यही कारण है कि महाराष्ट्र में शिवसेना और उससे टूटकर अलग हुई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेताओं ने कई बार इसका विरोध किया है और इस पर्व को शक्ति प्रदर्शन माना है।

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